शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

भौतिक वाद के क्षणिक दर्शन

मशीनी-करण दुनिया में,
मशीन मत बनना.
चमक भारी दुनिया में,
उड़ान मत भरना.
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भौतिक-दर्शन,
पश्चिमी-सभ्यता,
वाह!
दोनो का क्या गठजोड़ है.
इतना आकर्षण,
सच! अन्यन्त्र कहीं नहीं.
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तपोवन में बैठे ऋषि की,
तपस्या भंग करने को,
कामदेव की अब,
ज़रूरत नहीं.
रति के नृत्य की अब,
ज़रूरत नहीं.
चल, दबा चैनल,
चाहे डी. डी. वन,
चाहे डी. डी. टू.
स्वर्ग का द्वार खोल,
ना कामदेव की कमी,
ना रति की कमी,
यहाँ उर्वशी भी है,
यहाँ रंभा भी है.
झाँकने की ज़रूरत नहीं.
बगल मे जाने की ज़रूरत नहीं.
सब खुला खुला है.
चाहे हाय! कर ले,
चाहे तौबा कर ले.
सज़ा ले अपनी दुनिया,
कोई कमी नही है.
तेरा ही राग है, तेरा ही रंग है.

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वाह! टी. व्ही. के दर्शन,
यह तूने क्या किया?
जीवन के दर्शन को,
मरोड़कर रख दिया.
मानव के मूल्य को,
चंद सिक्कों मे तौल दिया.

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