शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

अपनापन


वर्ष फ़रवरी ९८ मे,
मैंने गजी की तौलिया १० रु. की छोड़,
रोयेदार तौलिया ५० रु. मे खरीदी थी.
मैं उससे कभी हाथ, कभी मुँह पोंछ लेता था.
सच, स्पर्श होते ही, बड़ा आनंद आता था.


एक दिन सीमू,
छोटा लड़का, एक पिल्ला रोयेदार तौलिए में समेटे,
सूर्योदय के समय,
उसे धूप का स्नान करवा रहा था.
मैं आग बाबूला हुआ, चिल्लाया.
तुम मेरी ५० रु. की तौलिए से,
गली के पिल्ले का मुँह पोंछ रहे हो?
उसने कहा, कक्कू, 'भूरवा' को बुखार है,
५० रु. दीजिए, इसका इलाज करवाना है.
मैनें कहा, बात मत कर,
गली के पिल्ले के लिए ५० रु. खर्च करेगा?


अचानक अपनापन जागा.
मैनें कहा, लेलो,
पर आइंदा बात मत करना.
५० रु. दिए,
वह पिल्ले को लेकर,
तौलिए मे समेटे,
डॉक्टर के घर भागा.
दवा लाया, 
दवा पिलाकर,
पिल्ले को बारामदे मे सुलाया.


दूसरे दिन सुबह,
सीमू का 'भूरवा', आँखें मून्दे था.
वह अंतिम साँसे ले रहा था.
मैं चिल्लाया, "सीमू! सीमू!
पिल्ले को घर से हटाओ,
क्या इसकी लाश हटवाने में,
नगर-पालिका मे ५० रु. लगवाओगे!"


पिल्ला, जैसे सुन लिया.
सीमू के आने से पहले,
'भूरवा' सिर लटकाए,
धीरे-धीरे, टुकूर-टुकूर चल दिया.
दरवाजे की देहरी उतरकर,
दूर चला गया.
सीमू आया,
मैनें कहा, चलो बला टली.
पचास रुपये बच गये.


चौथे दिन,
चार बजे कचहरी से लौटा.
सीमू का 'भूरवा',
बारामदे में बैठा था.
मुझे देखा,
मेरा पैर चाटने लगा.


मुझे लगा,
जैसे मूक-भाषा में,
सीमू का 'भूरवा',
मुझसे कह रहा था,
"कक्कू मैं ठीक हूँ.
स्वस्थ हूँ,
अभी नही मारूँगा.
आपको मेरी लाश उठवाने में,
पचास रुपये नहीं लगेंगे."
मुझे पश्चाताप हुआ,
मैनें उसे उठा लिया.
रोयेदार तौलिए में उसका मुँह पोंछा.
उसे हाथ में लिए,
उससे कहा,
"तुम्हें जुदा नही करूँगा.
तुम अपने हो", और
मेरी आँख भर आई.
'भूरवा' की आँखें डब-डबा आईं.
उसने मेरी कोट में,
अपना मुँह छिपा लिया.
यही अपनापन था.

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