शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

जब पहली बार मीट खाया

सन् १९६६,
नवंबर का महीना.
गुरुवार का दिन था.
मैं अग्रवाल विद्यालय में
अंग्रज़ी का अध्यापक था.

स्कूल का स्टाफ,
मुझे सिंह साहब कहता था.
एक दिन मेरे मित्र श्री वर्मा ने,
धीरे से कहा,
सिंह साहब, 
श्री राम सिंह के यहाँ,
आज निमंत्रण है.
उनके यहाँ
मुझे, वर्मा को तथा
श्री पांडे को चलना है.
मैने कहा अच्छा है.
दोपहर का खाना,
आज वहीं होगा.

करीब दो बजे,
मैं, वर्मा, तथा श्री पांडे,
श्री राम सिंह के घर,
धवारी, सतना पहुँचे.

राम पीठ उंघारे,
पसीने से तर-बतर
चूल्‍हे के सामने
बैठे थे.
बटलोई में कूछ पक रहा था.
मैंने राम से पूछा,
क्या पक रहा है.
उन्होने सहज भाव से बताया
रोटी पक गयी है.
बकरे का मीट लाया था.
थोड़ी, पकने मे देरी है.

मीट का नाम सुनते ही,
जैसे मुझे साँप सूंघ गया.
मैने सोचा,
आज मीट खाने से,
इंकार किया तो,
सिंह-पन हट जाएगी.
हालत बिगड़ जाएगी.

श्री राम ने चार थालियों मे रोटी,
चार कटोरी मे,
मीट परोसा.
मेरा हिस्सा,
मेरे सामने रखा.

मैने सहज भाव से कहा,
राम, मेरा ख्याल नही किया.
मुझसे पूछा नहीं.
हफ्ते मे केवल एक दिन,
वह भी गुरुवार के दिन,
मीट नहीं ख़ाता,
पहले बताना था.

सबने मेरा मुँह देखा.
इसलिए,
राम ने आलमरी मे रखे डिब्बे से,
शक्कर निकाली.
उस दिन मैने,
शक्कर-रोटी खाई.

अगले माह दिसंबर में,
इतवार के दिन,
वर्मा ने अपने घर
निमंत्रण दिया.
वहीं चारों ने बैठकर,
स्कीम बनाई.
हम सब वर्मा के घर,
कोतवाली, सतना के पीछे,
पहुँचे.

मैने वर्मा से पूछा,
खाने मे कितनी देर है?
वर्मा ने कहा,
सुबह सांभर का मीट लाया था.
बड़ा कड़ा होता है.
बड़ी देर से पकता है.
थोड़ी देर ठहरो,
सब तैयार हो रहा है.

मैने अपने आप से कहा,
आज क्या गढोगे?
आज गुरुवार नहीं,
आज इतवार है.
पोल खुल जाएगी,
अब राज रहने दो,
जो हो रहा है,
होने दो.

अंतर-मन ने सुझाव दिया,
आँखें मूंद लेना.
आखें मूंद कर,
जो मिले,
खा लेना.
लोग कहेंगे,
मीर्चा ज़्यादा होगा.
इसलिए,
सिंह साहब की आँख
मिच रही है.

श्री वर्मा ने 
सांभर का मीट,
चार कटोरों मे,
अलग-अलग परोसा.
मेरे सामने,
कटोरा भर मीट सांभर का,
चार रोटी थाली मे,
रखकर सरकया.
मैने आँखें मूंदी,
चार कौर खाया.
महक अच्छी थी.
रसा मे लज़ीज़पन था.
मेरी जीभ,
चटकारे लेने लगी,
आँखे खुल गयीं.
मुझे लगा,
मीट खाना बुरा नहीं,
मीट खाना अच्छा है.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें