शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

अलाहाबाद की पहली यात्रा


मैं टी. आर. एस, कॉलेज, रीवा का
एम, ए. प्रिवीअस अँग्रेज़ी का,
नियमित छात्र था.
सन् १९६४ में,
फ़रवरी का महीना था.
मेरे रिश्ते के चाचा शिवकुमार,
जो अध्यापक थे,
मुझे मेरे कमरे में,
रीवा मे मिले.


मैने चाचा से कहा,
इस साल गर्मी में,
रीवा से बनारस पैदल चलना है.
चाचा ने स्वीकृति की
मोहर लगा दी.
गर्मी की छुट्टियाँ आईं.
चाचा को पैदल यात्रा की याद दिलाई.
उन्होने अमेंडमेंट किया.
पैदल के जगह, सायकल से
यात्रा अच्छी होगी.
मैने उनका अमेंडमेंट,
स्वीकार किया.
सायकल की यात्रा ७ मई १९६४ को तय हुई.


बनारस की यात्रा,
चोरी मे करनी थी.
मैने अपनी माँ से कहा,
तबीयत ठीक नही रहती.
डॉक्टर ने सलाह दी है,
छुट्टी मे रीवा में ही रहना है.
इलाज  करवाना है.
इसलिए माँ, 
१०-१५ दिन के लिए,
नमकीन, गुझिया का
नाश्ता तैयार कर दो.
माँ अनपढ़ भोली थी.
समझदार नही थी.
वह क्या जाने, 
अस्वस्थ हालत में,
गुझिया का नाश्ता नहीं किया जाता.
उसने मातृ-स्नेह में,
एक झोला नमकीन का
भरपूर नाश्ता तैयार किया.
बात पैसे बचाने की थी,
इलाज की बात, एक बहाना थी.
यात्रा के नाश्ते के लिए,
इलाज का बहाना ज़रूरी था.
सायकल है, सायकल से
यात्रा हो जाएगी.
लेकिन खाने के लिए
पर्याप्त पैसे कहा से मिलते,
इसलिए नाश्ते की जुगाड़ के लिए,
माँ से अपनी बीमारी की दास्तां गढ़ी थी.


* * * * * * * * * * * * * * * * * *


०७ मई १९६४ की सुबह,
मैं और चाचा
सायकल से अलाहबाद की यात्रा
सुबह ६ बजे शुरू की.
दोनो ने तय किया,
हर २५ मील में,
जहाँ कहीं भी कस्बा मिलेगा,
यात्रा के एक दिन का विश्राम होगा.
दो २५ मील गुज़रे,
जो कस्बे मिले,
कहीं ठहरने की जगह नहीं थी.


बारह-एक बजे दोपहर
चाक पहुँचे,
तमस नदी मे स्नान किया.
ऊपर चाक बाज़ार पहुँचा.
धर्मशाला का पता लगाया.
एक धर्मशाला मिला,
तीन-चार गधे पड़े थे.
चार-छः आवारा कुत्ते बैठे थे.
धर्मशाला मे आदमियों का नामो-निशान नही था.


मैने चाचा से कहा,
यहाँ नही रुकेंगे.
कुछ दूर चलकर,
पेड़ की छाया,
सड़क के किनारे, तलाश लेंगे.


मान आया,
किसी कच्चे होटेल में,
अच्छा भोजन करें,
अच्छा होगा.
चाचा ने स्वीकृति दी.
कच्चा होटेल ढूँढा,
सड़क के किनारे,
चाक की छोर पर,
कच्चा होटेल मिला.
दोनो अंदर बैठे,
ऑर्डर दिया.
चावल-दाल लाओ.
होटेल मालिक ने, चावल के साथ,
मसूर की दाल परोसा.
मसूर की दाल देख,
मुझे पसीना आया.
मैने ज़ोर देकर कहा,
अरहर की दाल नही?
मालिक ने कहा,
मसूर की दाल ही मिलेगी.
मैने कहा, उठाओ
मैं मसूर की दाल नहीं ख़ाता.


मालिक ने कहा,
फ़राई कर दूं?
मैं उस समय फ़राई
नही समझता था.
मैने सोचा,
फ़राई कोई अच्छी चीज़ होगी,
मैने कहा - कर दो.


होटेल मलिक ने,
एक भगोना, एक बड़ा चम्मच उठाया,
बड़ा चम्मच,
पास मे रखे कनेस्टर मे,
झट डुबोया.
एक चम्मच भरा घी,
भगोने मे डाला.
कुछ हरे मिर्च, कुछ लहसुन डाला.
भगोना आग मे रखकर,
थोड़ा पड़-पड़ किया.
भगोना पास मे लाया,
मसूर की दाल मे
डुबोया छन-छनया.
उसी समय मेरी नज़र,
कनेस्टर पर दोबारा पड़ी.
उसमे 'डालडा' लिखा था.
खजूर की फोटो थी.
मेरा मान घबराया.
उस समय डालडे का चलन 
कम था.
लोग डालडा (वनस्पति घी) कम खाते थे.
मैं भी नही ख़ाता था.
मेरा मूह ग्रिना से भर गया.
केवल चावल खाया.
मसूर की दाल छोड़,
बाहर आया.
दोनो ने अपनी-अपनी सायकल उठाई.


एक मील आगे चलकर,
एक तालाब की मेड पर
कुछ पेड़ो के दर्शन हुए.
छाया अच्छी दिखी.
दोनो का मन भाया.
दोनो का मान हुआ,
पेड़ों की छाया की में
पड़-बैठकर, विश्राम कर लें.
सायकल पर बधे बिस्तर खोले.
ज़मीन पर बिछाया,
दोनो लेट गये,
विश्राम करने लगे.


कुच्छ देर बाद,
दो-चार लोग,
तहमत लगाए,
हाथो मे अपने से ऊँची,
लाठी लिए, घूम रहे थे.


बीच-बीच,
अपनी अपनी लंबी मूँछे,
ऐंठ लेते थे.


मुझे डर लगा.
एहसास हुआ लूटने का,
मैने झट चाचा से कहा,
अभी यहाँ रहना ठीक नही.
अभी तो चार बजा है,
अलाहाबाद आठ मील दूर है.
यदि शाम तक यहीं रुके,
तो ये लोग,
डंडा मार-मार कर,
हालुआ बना देंगे.
सब लूट लेंगे.
सायकल छुड़ा लेंगे.
बनारस की यात्रा,
इसी तालाब मे समाप्त होगी.


चाचा को भी एहसास हुआ,
दोनो झटपट उठे,
बिस्तर अपना अपना समेटा.
सायकल दोनो ने उठाई.
चारो तरफ देखा,
अलाहाबाद की राह पकड़ी.

4 टिप्‍पणियां:

  1. मेरी कई वर्षे से सायकिल यात्रा के लिये इच्‍छा है पर पूरी नही कर पा रहा हूँ, आशा करता हूँ निकट भविष्‍य मे निकलूँगा.. सायकल यात्रा सर्च करते हुये आपके ब्‍लाग पर पहुँचा अच्‍छा लगा.. अच्‍छा लिखा है..

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