शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

Glimpses of Life

[29-November-2009]


In midnight, above in the sky
Twinkling Little Stars,
What they say,
Nothing, But to keep mum;
But those stars,
Teaches us ; that
We are like same stars
As momentary Glimpses
As momentary Glimpses of our Life.

WHO DIE

[05-July-2009]

No body is born,
No body is die,
It is the mind,
That concieves
It's Birth and Death,
It is Migration
To other bodies
And to other World.


Know that,
The body is like a garment,
Without the material body
You can't have spirituality
Don't think about the Death
The Going of Soul
From one body to another
That is migration of soul.


There is no coming,
And no going
What is coming
That is going
This is only the way of life,
In this World.

The way of Life

[18-March-2009]

Think over the present.
Leave the past.
Which is gone, that is gone.
That is gone, That is gone for ever.
Why think over that matter
The present is before eyes
Live in present
And think over on it.
Change old; according to new
This is The Way of The Life.

तारीफ़


क़ाबिले तारीफ उनमें; हो ना हो;
तारीफ करके देखिए.
चेहरा खिला, बाँछे खिली,
तस्वीर उनकी देखिए.
****************************
नाग कितना ही विषैला क्यूँ ना हो,
बजकर बीन उसको देखिए.
सिर हिलाकर नाचता है,
रफ़्तार उसकी देखिए.
*********************
परेशान जब कभी हों आप,
अंदाज़ करके देखिए.
तारीफ के दो बीज बोकर,
अनमोल वर पा लीजिए.

भौतिक वाद के क्षणिक दर्शन

मशीनी-करण दुनिया में,
मशीन मत बनना.
चमक भारी दुनिया में,
उड़ान मत भरना.
******************
भौतिक-दर्शन,
पश्चिमी-सभ्यता,
वाह!
दोनो का क्या गठजोड़ है.
इतना आकर्षण,
सच! अन्यन्त्र कहीं नहीं.
******************
तपोवन में बैठे ऋषि की,
तपस्या भंग करने को,
कामदेव की अब,
ज़रूरत नहीं.
रति के नृत्य की अब,
ज़रूरत नहीं.
चल, दबा चैनल,
चाहे डी. डी. वन,
चाहे डी. डी. टू.
स्वर्ग का द्वार खोल,
ना कामदेव की कमी,
ना रति की कमी,
यहाँ उर्वशी भी है,
यहाँ रंभा भी है.
झाँकने की ज़रूरत नहीं.
बगल मे जाने की ज़रूरत नहीं.
सब खुला खुला है.
चाहे हाय! कर ले,
चाहे तौबा कर ले.
सज़ा ले अपनी दुनिया,
कोई कमी नही है.
तेरा ही राग है, तेरा ही रंग है.

**************************

वाह! टी. व्ही. के दर्शन,
यह तूने क्या किया?
जीवन के दर्शन को,
मरोड़कर रख दिया.
मानव के मूल्य को,
चंद सिक्कों मे तौल दिया.

दो क्षणिकाए

(ग्राम चुनाव मई-१९९९)



आज सुबह-सुबह बस मे बैठा.
एक पत्रिका हाथ मे लिए,
समय काटने के लिए,
अपना मन बना रहा था.


इसी बीच एक २७ वर्षीय युवक,
आया, मेरे पैर छुए.
पैर चुने पर वाकई,
आनंद की बड़ी अनुभूति होती है.


मेरे आशीष देने से पहले,
युवक बोला, 
साहब; मैं सरपंच पद के लिए
खड़ा हो रहा हूँ.
नौकरी चाकरी ढूँढते-ढूँढते,
हताश हो गया हूँ.
इसलिए सरपंछी के चुनाव मे
ज़ोर तोड़ लगाऊँगा.
सरपंच बन गया,
तो बेकारी दूर हो जाएगी.
आप नौकरी दिला नहीं सकते,
अपना अमूल्य वोट तो,
दे ही सकते हैं! मैं आवक रह गया.


**************************


बस के दूसरे स्टेशन में,
एक महिला सवार हुई.
उसने मुझे देखते ही सिर ढक लिया.
कुछ डोर सीट पर बैठ गयी.


महिला को मैं पहचानता था.
उसका पति गंजेडी था.
मारता पीटता था.
इसलिए सतना, रोटी की तलाश मे,
भाग आया करती थी.
मैने सतना शहर की गलियों में,
उसे रोटी की तलाश मे देखता था.
मुझसे बोलती नहीं थी.
मुझे देखकर सिर धक लेती थी.
उसके प्रति मेरी सहानुभूति थी.


मैं अपनी सीट से उस महिला को देख रहा था.
साड़ी; वह अच्छी पहने थी.
उसके कंधे में बैग लटका था.
मैने सोचा,
ग़रीब महिला के दिन पलते हैं,
उसके खाने पीने के दिन हैं,
मुझे अच्छा लगा.
चलो अच्छा हुआ.


सतना स्टेशन पर,
मैं अपनी सीट से उठा.
महिला भी, अपनी सीट से उठी.
मेरे सामने खड़ी हो गयी.
दोनो हाथ जोड़ लिए,
बोली;
वकील साहब,
मैं कृषि-उपज मॅंडी के लिए,
अध्यक्षी पद का,
चुनाव लड़ रही हूँ.
अपना अमूल्य मत,
मुझे दीजिएगा.
हो सके तो,
पड़ोसियों से मदद कराईएगा.


मैं अवाक रह गया.
कुछ देर बाद,
मेरे मुख से इतना ही निकला,
"ठीक है"! चलो अच्छा हुआ.



आत्म-चिंतन


इस चका-चौंध की दुनिया में,
दौड़ते दौड़ते थक गया.
तोड़ा विश्राम करने के लिए,
जगह ढूंढता हूँ.
************************
पहले लोग,
जीवन-पथ में थक कर,
आसमाँ के तले,
शरण ढूँढते थे.
चाँद और तारों के बीच,
नीले गगन में,
जगह तलाशते थे.
मैने भी आसमाँ देखा,
जगह नहीं.
वहाँ इनसेट की भरमार है.
आटम बमों के धमाके से
उड़ी धून्ध से
आसमाँ लत-पथ है.
***************************
मन की शांति के लिए,
लोग जाते थे जंगलों में.
वृक्षों की घनी छाया में,
पक्षीयों के कलरव-गान
अनगिनत फूलों की
मिश्रित महक के बीच
लोग तलाशते थे,
पल भर के जीवन की; शांति.
*****************************
जंगल काट गये,
पक्षीयों का बसेरा उठ गया.
जो जंगल बचा
पत्तियों के तोड़ने के बहाने
उसे रौंद डाला.
सब कुछ लूट गया.
काश! कुछ बचा होता.
*****************************
कहीं जगह नहीं.
न इस छोर न उस छोर,
क्या करूँ? कहाँ जाऊं?
कुछ समझ नही आता.
लगता है, आक्सिडेंट हो जाएगा.
सब कुछ नष्ट हो जाएगा.
****************************
अभी स्मृति-पटल में,
मन-दर्पण के बीच,
एक छाया-चित्र की अनुभूति!
अभी-अभी हुई,
अंतर-मन की ध्वनि,
सुनाई दी.
'क्यूँ भटकता है?'
आवाज़ आत्मा की तो नहीं!
काया में झाँक.
वही तो है.
तेरे घर में है.
भ्रम में था.
पहचाना नहीं था.
***********************
बाह्य जगत में,
कहीं जगह नहीं,
बाह्य की दीवारें तोड़,
अंदर झाँक,
सब कुछ पा जाएगा.
आग भरी दुनिया में,
हाथ मत डाल.
सब कुछ जल जाएगा.
*************************
शांति अंतर-मन में है.
अंतर-मन मे ढूँढ.
दलालों के चक्कर में,
दुनिया के तमाशबीनो के बीच,
चका-चौंध की दुनिया में,
मत भटक.
क्या मिला? कुछ नहीं.
उदास मन! उदास काया!
**************************
हँसी, खुशी, शांति,
संबंधित हैं, आत्म-चिंतन से,
आत्मिक दिव्यता, पवित्रता
तथा उसके प्रकाश का संबंध,
परमेश्वर से है.
जिसने अपने आपको,
उसकी सत्ता मे विलीन किया,
उसने अपने आपको अन्यथा नहीं जाना.
उसे जगह मिल गई.
चिर शांति मिल गई.
सुख शांति में विलीन,
उसे किसी की चाह नहीं रही.

अलाहाबाद की पहली यात्रा


मैं टी. आर. एस, कॉलेज, रीवा का
एम, ए. प्रिवीअस अँग्रेज़ी का,
नियमित छात्र था.
सन् १९६४ में,
फ़रवरी का महीना था.
मेरे रिश्ते के चाचा शिवकुमार,
जो अध्यापक थे,
मुझे मेरे कमरे में,
रीवा मे मिले.


मैने चाचा से कहा,
इस साल गर्मी में,
रीवा से बनारस पैदल चलना है.
चाचा ने स्वीकृति की
मोहर लगा दी.
गर्मी की छुट्टियाँ आईं.
चाचा को पैदल यात्रा की याद दिलाई.
उन्होने अमेंडमेंट किया.
पैदल के जगह, सायकल से
यात्रा अच्छी होगी.
मैने उनका अमेंडमेंट,
स्वीकार किया.
सायकल की यात्रा ७ मई १९६४ को तय हुई.


बनारस की यात्रा,
चोरी मे करनी थी.
मैने अपनी माँ से कहा,
तबीयत ठीक नही रहती.
डॉक्टर ने सलाह दी है,
छुट्टी मे रीवा में ही रहना है.
इलाज  करवाना है.
इसलिए माँ, 
१०-१५ दिन के लिए,
नमकीन, गुझिया का
नाश्ता तैयार कर दो.
माँ अनपढ़ भोली थी.
समझदार नही थी.
वह क्या जाने, 
अस्वस्थ हालत में,
गुझिया का नाश्ता नहीं किया जाता.
उसने मातृ-स्नेह में,
एक झोला नमकीन का
भरपूर नाश्ता तैयार किया.
बात पैसे बचाने की थी,
इलाज की बात, एक बहाना थी.
यात्रा के नाश्ते के लिए,
इलाज का बहाना ज़रूरी था.
सायकल है, सायकल से
यात्रा हो जाएगी.
लेकिन खाने के लिए
पर्याप्त पैसे कहा से मिलते,
इसलिए नाश्ते की जुगाड़ के लिए,
माँ से अपनी बीमारी की दास्तां गढ़ी थी.


* * * * * * * * * * * * * * * * * *


०७ मई १९६४ की सुबह,
मैं और चाचा
सायकल से अलाहबाद की यात्रा
सुबह ६ बजे शुरू की.
दोनो ने तय किया,
हर २५ मील में,
जहाँ कहीं भी कस्बा मिलेगा,
यात्रा के एक दिन का विश्राम होगा.
दो २५ मील गुज़रे,
जो कस्बे मिले,
कहीं ठहरने की जगह नहीं थी.


बारह-एक बजे दोपहर
चाक पहुँचे,
तमस नदी मे स्नान किया.
ऊपर चाक बाज़ार पहुँचा.
धर्मशाला का पता लगाया.
एक धर्मशाला मिला,
तीन-चार गधे पड़े थे.
चार-छः आवारा कुत्ते बैठे थे.
धर्मशाला मे आदमियों का नामो-निशान नही था.


मैने चाचा से कहा,
यहाँ नही रुकेंगे.
कुछ दूर चलकर,
पेड़ की छाया,
सड़क के किनारे, तलाश लेंगे.


मान आया,
किसी कच्चे होटेल में,
अच्छा भोजन करें,
अच्छा होगा.
चाचा ने स्वीकृति दी.
कच्चा होटेल ढूँढा,
सड़क के किनारे,
चाक की छोर पर,
कच्चा होटेल मिला.
दोनो अंदर बैठे,
ऑर्डर दिया.
चावल-दाल लाओ.
होटेल मालिक ने, चावल के साथ,
मसूर की दाल परोसा.
मसूर की दाल देख,
मुझे पसीना आया.
मैने ज़ोर देकर कहा,
अरहर की दाल नही?
मालिक ने कहा,
मसूर की दाल ही मिलेगी.
मैने कहा, उठाओ
मैं मसूर की दाल नहीं ख़ाता.


मालिक ने कहा,
फ़राई कर दूं?
मैं उस समय फ़राई
नही समझता था.
मैने सोचा,
फ़राई कोई अच्छी चीज़ होगी,
मैने कहा - कर दो.


होटेल मलिक ने,
एक भगोना, एक बड़ा चम्मच उठाया,
बड़ा चम्मच,
पास मे रखे कनेस्टर मे,
झट डुबोया.
एक चम्मच भरा घी,
भगोने मे डाला.
कुछ हरे मिर्च, कुछ लहसुन डाला.
भगोना आग मे रखकर,
थोड़ा पड़-पड़ किया.
भगोना पास मे लाया,
मसूर की दाल मे
डुबोया छन-छनया.
उसी समय मेरी नज़र,
कनेस्टर पर दोबारा पड़ी.
उसमे 'डालडा' लिखा था.
खजूर की फोटो थी.
मेरा मान घबराया.
उस समय डालडे का चलन 
कम था.
लोग डालडा (वनस्पति घी) कम खाते थे.
मैं भी नही ख़ाता था.
मेरा मूह ग्रिना से भर गया.
केवल चावल खाया.
मसूर की दाल छोड़,
बाहर आया.
दोनो ने अपनी-अपनी सायकल उठाई.


एक मील आगे चलकर,
एक तालाब की मेड पर
कुछ पेड़ो के दर्शन हुए.
छाया अच्छी दिखी.
दोनो का मन भाया.
दोनो का मान हुआ,
पेड़ों की छाया की में
पड़-बैठकर, विश्राम कर लें.
सायकल पर बधे बिस्तर खोले.
ज़मीन पर बिछाया,
दोनो लेट गये,
विश्राम करने लगे.


कुच्छ देर बाद,
दो-चार लोग,
तहमत लगाए,
हाथो मे अपने से ऊँची,
लाठी लिए, घूम रहे थे.


बीच-बीच,
अपनी अपनी लंबी मूँछे,
ऐंठ लेते थे.


मुझे डर लगा.
एहसास हुआ लूटने का,
मैने झट चाचा से कहा,
अभी यहाँ रहना ठीक नही.
अभी तो चार बजा है,
अलाहाबाद आठ मील दूर है.
यदि शाम तक यहीं रुके,
तो ये लोग,
डंडा मार-मार कर,
हालुआ बना देंगे.
सब लूट लेंगे.
सायकल छुड़ा लेंगे.
बनारस की यात्रा,
इसी तालाब मे समाप्त होगी.


चाचा को भी एहसास हुआ,
दोनो झटपट उठे,
बिस्तर अपना अपना समेटा.
सायकल दोनो ने उठाई.
चारो तरफ देखा,
अलाहाबाद की राह पकड़ी.

जब पहली बार मीट खाया

सन् १९६६,
नवंबर का महीना.
गुरुवार का दिन था.
मैं अग्रवाल विद्यालय में
अंग्रज़ी का अध्यापक था.

स्कूल का स्टाफ,
मुझे सिंह साहब कहता था.
एक दिन मेरे मित्र श्री वर्मा ने,
धीरे से कहा,
सिंह साहब, 
श्री राम सिंह के यहाँ,
आज निमंत्रण है.
उनके यहाँ
मुझे, वर्मा को तथा
श्री पांडे को चलना है.
मैने कहा अच्छा है.
दोपहर का खाना,
आज वहीं होगा.

करीब दो बजे,
मैं, वर्मा, तथा श्री पांडे,
श्री राम सिंह के घर,
धवारी, सतना पहुँचे.

राम पीठ उंघारे,
पसीने से तर-बतर
चूल्‍हे के सामने
बैठे थे.
बटलोई में कूछ पक रहा था.
मैंने राम से पूछा,
क्या पक रहा है.
उन्होने सहज भाव से बताया
रोटी पक गयी है.
बकरे का मीट लाया था.
थोड़ी, पकने मे देरी है.

मीट का नाम सुनते ही,
जैसे मुझे साँप सूंघ गया.
मैने सोचा,
आज मीट खाने से,
इंकार किया तो,
सिंह-पन हट जाएगी.
हालत बिगड़ जाएगी.

श्री राम ने चार थालियों मे रोटी,
चार कटोरी मे,
मीट परोसा.
मेरा हिस्सा,
मेरे सामने रखा.

मैने सहज भाव से कहा,
राम, मेरा ख्याल नही किया.
मुझसे पूछा नहीं.
हफ्ते मे केवल एक दिन,
वह भी गुरुवार के दिन,
मीट नहीं ख़ाता,
पहले बताना था.

सबने मेरा मुँह देखा.
इसलिए,
राम ने आलमरी मे रखे डिब्बे से,
शक्कर निकाली.
उस दिन मैने,
शक्कर-रोटी खाई.

अगले माह दिसंबर में,
इतवार के दिन,
वर्मा ने अपने घर
निमंत्रण दिया.
वहीं चारों ने बैठकर,
स्कीम बनाई.
हम सब वर्मा के घर,
कोतवाली, सतना के पीछे,
पहुँचे.

मैने वर्मा से पूछा,
खाने मे कितनी देर है?
वर्मा ने कहा,
सुबह सांभर का मीट लाया था.
बड़ा कड़ा होता है.
बड़ी देर से पकता है.
थोड़ी देर ठहरो,
सब तैयार हो रहा है.

मैने अपने आप से कहा,
आज क्या गढोगे?
आज गुरुवार नहीं,
आज इतवार है.
पोल खुल जाएगी,
अब राज रहने दो,
जो हो रहा है,
होने दो.

अंतर-मन ने सुझाव दिया,
आँखें मूंद लेना.
आखें मूंद कर,
जो मिले,
खा लेना.
लोग कहेंगे,
मीर्चा ज़्यादा होगा.
इसलिए,
सिंह साहब की आँख
मिच रही है.

श्री वर्मा ने 
सांभर का मीट,
चार कटोरों मे,
अलग-अलग परोसा.
मेरे सामने,
कटोरा भर मीट सांभर का,
चार रोटी थाली मे,
रखकर सरकया.
मैने आँखें मूंदी,
चार कौर खाया.
महक अच्छी थी.
रसा मे लज़ीज़पन था.
मेरी जीभ,
चटकारे लेने लगी,
आँखे खुल गयीं.
मुझे लगा,
मीट खाना बुरा नहीं,
मीट खाना अच्छा है.

अपनापन


वर्ष फ़रवरी ९८ मे,
मैंने गजी की तौलिया १० रु. की छोड़,
रोयेदार तौलिया ५० रु. मे खरीदी थी.
मैं उससे कभी हाथ, कभी मुँह पोंछ लेता था.
सच, स्पर्श होते ही, बड़ा आनंद आता था.


एक दिन सीमू,
छोटा लड़का, एक पिल्ला रोयेदार तौलिए में समेटे,
सूर्योदय के समय,
उसे धूप का स्नान करवा रहा था.
मैं आग बाबूला हुआ, चिल्लाया.
तुम मेरी ५० रु. की तौलिए से,
गली के पिल्ले का मुँह पोंछ रहे हो?
उसने कहा, कक्कू, 'भूरवा' को बुखार है,
५० रु. दीजिए, इसका इलाज करवाना है.
मैनें कहा, बात मत कर,
गली के पिल्ले के लिए ५० रु. खर्च करेगा?


अचानक अपनापन जागा.
मैनें कहा, लेलो,
पर आइंदा बात मत करना.
५० रु. दिए,
वह पिल्ले को लेकर,
तौलिए मे समेटे,
डॉक्टर के घर भागा.
दवा लाया, 
दवा पिलाकर,
पिल्ले को बारामदे मे सुलाया.


दूसरे दिन सुबह,
सीमू का 'भूरवा', आँखें मून्दे था.
वह अंतिम साँसे ले रहा था.
मैं चिल्लाया, "सीमू! सीमू!
पिल्ले को घर से हटाओ,
क्या इसकी लाश हटवाने में,
नगर-पालिका मे ५० रु. लगवाओगे!"


पिल्ला, जैसे सुन लिया.
सीमू के आने से पहले,
'भूरवा' सिर लटकाए,
धीरे-धीरे, टुकूर-टुकूर चल दिया.
दरवाजे की देहरी उतरकर,
दूर चला गया.
सीमू आया,
मैनें कहा, चलो बला टली.
पचास रुपये बच गये.


चौथे दिन,
चार बजे कचहरी से लौटा.
सीमू का 'भूरवा',
बारामदे में बैठा था.
मुझे देखा,
मेरा पैर चाटने लगा.


मुझे लगा,
जैसे मूक-भाषा में,
सीमू का 'भूरवा',
मुझसे कह रहा था,
"कक्कू मैं ठीक हूँ.
स्वस्थ हूँ,
अभी नही मारूँगा.
आपको मेरी लाश उठवाने में,
पचास रुपये नहीं लगेंगे."
मुझे पश्चाताप हुआ,
मैनें उसे उठा लिया.
रोयेदार तौलिए में उसका मुँह पोंछा.
उसे हाथ में लिए,
उससे कहा,
"तुम्हें जुदा नही करूँगा.
तुम अपने हो", और
मेरी आँख भर आई.
'भूरवा' की आँखें डब-डबा आईं.
उसने मेरी कोट में,
अपना मुँह छिपा लिया.
यही अपनापन था.