शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

आत्म-चिंतन


इस चका-चौंध की दुनिया में,
दौड़ते दौड़ते थक गया.
तोड़ा विश्राम करने के लिए,
जगह ढूंढता हूँ.
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पहले लोग,
जीवन-पथ में थक कर,
आसमाँ के तले,
शरण ढूँढते थे.
चाँद और तारों के बीच,
नीले गगन में,
जगह तलाशते थे.
मैने भी आसमाँ देखा,
जगह नहीं.
वहाँ इनसेट की भरमार है.
आटम बमों के धमाके से
उड़ी धून्ध से
आसमाँ लत-पथ है.
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मन की शांति के लिए,
लोग जाते थे जंगलों में.
वृक्षों की घनी छाया में,
पक्षीयों के कलरव-गान
अनगिनत फूलों की
मिश्रित महक के बीच
लोग तलाशते थे,
पल भर के जीवन की; शांति.
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जंगल काट गये,
पक्षीयों का बसेरा उठ गया.
जो जंगल बचा
पत्तियों के तोड़ने के बहाने
उसे रौंद डाला.
सब कुछ लूट गया.
काश! कुछ बचा होता.
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कहीं जगह नहीं.
न इस छोर न उस छोर,
क्या करूँ? कहाँ जाऊं?
कुछ समझ नही आता.
लगता है, आक्सिडेंट हो जाएगा.
सब कुछ नष्ट हो जाएगा.
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अभी स्मृति-पटल में,
मन-दर्पण के बीच,
एक छाया-चित्र की अनुभूति!
अभी-अभी हुई,
अंतर-मन की ध्वनि,
सुनाई दी.
'क्यूँ भटकता है?'
आवाज़ आत्मा की तो नहीं!
काया में झाँक.
वही तो है.
तेरे घर में है.
भ्रम में था.
पहचाना नहीं था.
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बाह्य जगत में,
कहीं जगह नहीं,
बाह्य की दीवारें तोड़,
अंदर झाँक,
सब कुछ पा जाएगा.
आग भरी दुनिया में,
हाथ मत डाल.
सब कुछ जल जाएगा.
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शांति अंतर-मन में है.
अंतर-मन मे ढूँढ.
दलालों के चक्कर में,
दुनिया के तमाशबीनो के बीच,
चका-चौंध की दुनिया में,
मत भटक.
क्या मिला? कुछ नहीं.
उदास मन! उदास काया!
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हँसी, खुशी, शांति,
संबंधित हैं, आत्म-चिंतन से,
आत्मिक दिव्यता, पवित्रता
तथा उसके प्रकाश का संबंध,
परमेश्वर से है.
जिसने अपने आपको,
उसकी सत्ता मे विलीन किया,
उसने अपने आपको अन्यथा नहीं जाना.
उसे जगह मिल गई.
चिर शांति मिल गई.
सुख शांति में विलीन,
उसे किसी की चाह नहीं रही.

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